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आवारा हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ
या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ……
अंतर्मन में न जाने क्यों ये गीत गूंज रहा था ‘
पर अमूनन कई सवालों के जवाब नहीं ढूंढे जाते
और बस यही संबल मैंने खुद की जिज्ञासा को दिया
और चल पढ़ा सफर में
एक अनजान मुसाफिर की तरह
सफर के भी अलग-अलग मायने होते हैं
कुछ सफर तन की ख्वाइश पूरी करते हैं
शायद इसलिए हम उन पर तनख्वाह खर्च करते हैं
पर ये सफर कुछ अलहदा था
मन की ख्वाइशें आज़ाद थीं , स्वछंद थीं
शायद इसमें वही अल्हड़पन था
जो एक समय बरेली में मुझे बड़ा बाजार की गलियों में घूमने में मिलता था
एक दीवानेपन का अहसास था मानो
शायद वो जरुरी था
खुद को खुद से जुदा करने के लिए
एक उस पल को पाने के लिए जिसमें
होने या न होने के अहसास से कोई फ़र्क़ न पडे
जब स्वाँस की हर एक उतार चढ़ाब वेदना और संवेदना की दूरी मिटा दे
बस वही एक अहसास हुआ कुछ पलों के लिए
कई जतन कम पड़ चुके थे
इस सत्य को स्वीकार करने के लिए
की मेरा होने या न होने का अहसास सिर्फ मेरा है
न कुछ नैतिक है न अनैतिक है
इस सफर में न तो कुछ नाते हैं , न रिश्ते हैं और न दूरियाँ
बस एक गीत है अंतर्मन में
मैं वृक्ष नहीं, तिनका ही सही
अपने अस्तित्व की ठौर नहीं
तूफ़ाँ के खौफ को हँस-हँस के टाला हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ!!
~ DrunkardPoet (IG — @Drunkardpoett)
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