आँगन और आँचल

Ankit Mishra
1 min readJan 20, 2020

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किसी का जाना भी कितना अजीब ख्याल है

दूरी क्या होती है? उसका एहसास !

ठीक वैसा ही महसूस होता है कभी-कभी,

आँगन और आँचल

दोनों से दूर हो गया हूँ!

वो पुरबाई की हवा में

सिमट कर

खो जाना अपने साम्राज्य के एहसास में

साम्राज्य भी कैसा?

एक अदद कुर्सी,

एक कलम,

एक अदद कागज़,

और कागज़ की बनाई शहनाई की तान पर

काल्पनिक शत्रु से लड़ने को तैयार

तीर कमान लिए कोई साथी !

वो युद्ध न तो तार्किक थे

न बौद्धिक

धार्मिक तो बिलकुल भी नहीं

क्यूंकि कभी फैज़ल राम बनता था

और कभी राम बाबर!

और साँझ ढले

जब सूरज पश्चिम की तरफ करवट लेकर सोने की तयारी करता था

माँ के आँचल में

मेरा भी सूर्य अस्त हो जाता था ,

मानो एक ब्रह्माण्ड सी ख़ुशी थी

माँ के आँचल में

जून में सर्द हवा के झोंके सा

और दिसम्बर में मखमल की रजाई सा !

अब आँगन ख़तम हो गया है

और खड़ी हो गयी हैं

बहुमंजिली इमारतें

मोबाइल की स्क्रीन बन गयी साम्राज्य

और हम राजा अपने काल्पनिक ऑनलाइन प्रोफाइल के

युद्ध अभी भी वही है

बस बदल गए हैं भाव

सीमायें बन गयी हैं

विचारों की , धर्म और राष्ट्र के पहरेदारों की

विकल्प क्या है वैसे भी

अब न तो है वो माँ का आँचल

और न ही आँगन

मन कुंठित है

अपने होने के अहसास से

खुद से दूर खुद के जाने के आभास से!

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Ankit Mishra
Ankit Mishra

Written by Ankit Mishra

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